बुधवार, मई 28

जिंदगी एक कविता

नहीं सूझती कविता अब कोई,
जिंदगी खुद एक कविता बनी है।
ढली है सुरमई शाम बनकर,
शंखनाद बन सुबह को गूंजी है।
विराम मिला है बुद्धि को,
जैसे युद्ध के बाद,
प्रेम युग की शुरुआत हुई है।
जीत हार से परे अब,
जीवन की पुकार सुनी है।
धीर पनपता है भीतर मेरे,
क्या बताऊं तुम्हें,
सुकून की बरसात उमड़ी है।
एक अद्भुत रौशनी मार्ग खड़ी है,
जब से,
जिन्दगी खुद एक कविता बनी है।
© गुंजन झाझारिया

भूत-भविष्य

भूत जाता नहीं,
आस-पास रहता है।
कभी मुस्कुराहट बनकर,
और कभी,
भौचंका कर देने वाला,
असत्य बनकर।
जो सत्य नहीं है,
पर सत्य बन जिया सदा,
वो सत्य से भी अधिक,
तकलीफ़दायक है।
निगलना नहीं,
भूलना नहीं,
गाँठ बाँध रखना साथ,
वो सत्य का चोगा पहने असत्य,
मजबूत बनाएगा तुम्हें।
सत्य से असत्य की लड़ाई में,
जब सत्य की डगर कठिन लगेगी।
हारने नहीं देगा,
वो असत्य,
जो भूत बिगाड़ चूका है,
भविष्य वही संवारेगा।
© Gunjan Jhajharia

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गुरुवार, मई 1

हकीक़त में सपना

मुझे भी बनाना है,
एक सपने को हकीक़त।
शनै: शनै: जैसे,
सूर्य बनता यथार्थ प्रभात में,
या चौथ का चाँद,
अचानक सत्य हो उठता है।
जगह ख़ूबसूरत सी,
जहाँ किताब नहीं होगी,
होंगी कविताये मंढी हुई।
रंगीन इच्छाओं के बीच,
बोली लगेगी,
उम्दा कविताओं की,
हाँ,
जब,
एक ही प्रति बना करेगी एक कविता की।
कवयित्री के हाथों रंगी,
घर की दीवारों पर टांगने को,
जहाँ से हर रोज़ पढ़ा जाएगा,
दीवार देख,
इंसान की पसंद परखी जाएगी।
हाँ,
बोली लगा करेगी,
कविताओं की।
नहीं,
यह बेचना नहीं है।
कला कहाँ बिकती है,
कागज़ में छपी,
कई बार बेमन से पढ़ी,
कई बार सरसरी निगाह से देखी गई,
अखबार, पत्रिका, और
किताब में धूल खा रही,
सड़क पर दाल बेचने वाले की रोज़ी रोटी बन रही कविता के सम्मान की लड़ाई है।
बाज़ार में भी,
रिश्तों की कीमत निम्नतम रही,
जो बिकने लायक नहीं,
वह बेचा गया है हमेशा,
गिनती की कविताएं,
खरी शुद्ध कविताएं,
टंगी होंगी जब दीवारों पर,
मोल बेशकीमती हो जाएगा,
इंसानी ज़ज्बात का।
हवा में तैरता,
अपना एक लक्ष्य है।
कविता नहीं,
अहसास को हक हासिल हो,
इंसानी जज़्बात की कीमत हो,
जो नहीं कर पाए प्रभु,
उनके भक्त के लिए,
मुनासिब हो।
मुझे भी हकीक़त,
अपने हाथो से रंगनी है।
© gunjan jhajharia

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रविवार, अप्रैल 27

हमेशा, हर बार

हमेशा,
एक बार,
हर किसी को वापस लौटना होता है,
उसी स्थान पर,
जहाँ से शुरुआत की थी,
और तब जरुरी हो जाता है,
छिपी हुई बातों का हवा हो जाना।
हाँ साहिब,
पृथ्वी गोल है,
जीवन चक्र भी,
उसी प्रकार ईर्ष्या और प्रेम भी गोलाई लिए हुए हैं।
ह्रदय से निकला प्रेम का तार,
खाली होकर भी खाली नहीं होता,
बरसों बाद जब निकलता है,
झरना बन,
संकड़ों गले तर हो जाते हैं।
ईर्ष्या भी दोगुनाती है,
और सामने आती है,
इच्छाधारी नागिन बन,
कभी नहीं हारने और डसने का संकल्प लेकर,
चाहे तपस्या पूरी करने में,
सालों का समय निकल जाए,
सब तुम पर है,
रुई की गुदगुदाहट चाहिए या नकली कपास।
एक बार,
हर किसी को वापस लौटना ही होता है।
© Gunjan Jhajharia

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सब कुछ बोलता है।

मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।
सब कुछ बोलता दिखाई पड़ता है।
इस पृथ्वी की धुरी पर,
सब चीखता,
अपनी गाथा सुनाता नज़र आता है।
जैसे हो हर किसी के पास,
बुद्धि का तोहफ़ा,
हरेक कण सोचता-समझता लगता है।
रोते हुए लगते हैं जैसे उस गाय के नयन,
कभी खिलखिलाता है पहाड़ का भी मन,
स्वांस लेती हैं शहर की गलियां,
गवाह बनता है हर मोड़ का चौराहा,
खम्बों पर लगी रौशनी कभी कभी,
ऑपरेशन थिएटर की रौशनी जैसा अहसास कराती,
नंगे पांव कचरा बीनता बचपन शर्म से जमीन में गड़ जाता,
उडती हवाई-जहाज सफ़ेद धुएं के साथ,
वृक्षों की कतार गीत गाती चलती जाती ,
नालों में बहता रक्त उठ-उठ कर नाचने लगता,
देवियाँ जब हॉस्पिटल के पिछवाड़े थैलियों में अस्त हो रही होती,
भरोसा जब आंख के सामने विलाप कर रहा होता,
बम विस्फूटित हो उठता घर की चारदीवारी के भीतर,
उस समय बाहर की तरफ दौड़ जाते गृह निवासी,
सब एक एक हो,
खोजने लगते सुकून भरा कोना,
खो देते हाथ अपना पहले,
फिर दर्द में कराहते उम्र भर,
मुझे हर एक के चेहरे पर,
भाग-दौड़ ही क्यों नज़र आती है।
उंचाई सा उठता हर कोई,
फिर ज्यादा हवा के बहाव से दूर चला जाता,
अन्दर-बाहर के वायुदाब में अंतर होते ही फूट पड़ता।
हर पत्थर अकेला हो,
तो कैसे पहाड़ बने?
फिर हरेक कहता ,
कोई मुझसे मिले तो मैं पहाड़ बनूँ।
मुझे हर कहीं शब्द ही क्यों नज़र आते हैं।
© Gunjan Jhajharia

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मेघ में लपेट भेजना सन्देश

तेवर गरम मिज़ाजी हैं,
मौसम के इन दिनों,
इन्ही दिनों में उनका सन्देश भी आने वाला है,
इतना जमा हुआ अहसास है वो,
फिजाओं के असर से पिघल कर,
राह में टपक गया तो?
राहें तो सुंगंधित हो ही जायेंगी,
मैं उस सुगंध के सहारे ढूंढ़ भी लुंगी,
पता उनका,
क्या होगा मेरे आँगन का?
जो उस अहसास को छूने,
अपने भीतर बसाने को,
स्वयं की गंध भुलाकर फ़ीका पड गया है,
जिसकी रेत रोज गीली करनी पडती है अश्रुओं से,
फिर भी सूख जाती है हर शाम वो,
जहाँ पानी के नलके से बरसता है गीलापन,
और भिगो देता है अन्तर्मन,
जाने कहाँ से आती है इसकी पाईपलाइन,
जो दे जाती है उम्मीद,
उसके अहसास के गीले रहने की,
लौट आने की,
तेवर गरम-मिजाजी हैं,
मौसम के इन दिनों।
सन्देश के चारों और मेघ लपेट कर भेजना प्रियवर!
मेरे आँगन को खुशबू का इंतज़ार रहेगा।
© Gunjan Jhajharia

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बुधवार, अप्रैल 23

मुझे लड़ना भाता है।

मुझे लड़ना भाता है।

फितरत में बसा है,
लड़ना मानुष के।
जैसे जन्म के समय,
माँ लड़ी थी दर्द से,
मृत्यु के काल से,
नन्हा लड़ा था तब,
धरती पर अवतार से,
बाहरी प्रकाश से,
लड़ा था छुटपन में,
स्वयं अपनी चाल से,
गिरने-उठने,
हरदम सहारे वाले हालात थे जब,
चल कर जता दिया बल ,
तो कद रह गया छोटा,
लड़ा तब उंचाई की ढाल से,
हरदम फिर चिर यौवन में,
डट कर लड़ा,
"हारमोंस" की बौछार से,
प्रेम में हारा, रोया अंधेरों में,
पर नहीं रुका,
पढ़ाई ने मारा, तू नहीं झुका,
समाजी तूफ़ान ने उड़ाना चाहा,
हिला तक नहीं तू रत्ती भर,
कमाने को भोजन छोड़ा,
भूल गया तू दिन और रात,
त्याग दिया अपनों का साथ,
नींद से लड़ा रातों में,
दिन में झगड़ा इच्छाओं से,
मशीनें तेरी बनाई थी,
बना लिया तुझे गुलाम,
नहीं स्वीकार्य गुलामी तुझको कभी,
उनसे भी उलझा हर साँस,
कृष्ण हो गया रे तू तो मानुष,
आये राक्षश लाख,
तू नहीं डरा,
उँगली पे उठा लिया जज्बा तूने,
रोया चिल्लाया,
की गलतियाँ जी भर,
पर सांचा राहगीर तू,
चलता रहा, लड़ता रहा,
छिलता रहा,
खुद आप दवा बना,
फितरत में रमा लिया,
लड़ना मानुष ने।
मुझे भी ये लड़ना भाता है,
नहीं पूछना,
"कब तक" का जवाब,
मुझे डटे रहना जमता है।
© गुंजन झाझारिया

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सोमवार, अप्रैल 14

People and family

Last night,
I had an argument,
with my mom,
She told me,
I am not up on her desires,
I told her,
You don't love me,
She told me,
I am rude,
I told her,
You'r not caring,
She blamed,
I don't listen,
I blamed,
You don't understand,
We both were angry,
With the,
Red-blue-yellow-orange sunny rays,
Of the morning,
She came,
In my room,
With a cup of tea,
I wasn't remember,
The last night fight,
I call her again 'mamma',
Which dress,
should I wear today,
She rudely replied,
Yellow,
Aah,
A sigh of relief,
Mom is cool now,
She love me,
Understands,
and care for me.
At the same time,
I got a message,
It was an old left friend,
With Whom,
I had a small argument,
one year back,
And here,
I deleted her message,
As I knw,
I dnt want again,
People who left me once.
......
Yes,
There's a clear line,
Between,
People and family..
I ll be angry with them,
I ll be happy with them,
I ll be cry,
Because of them,
For them,
I truly value them .
© गुंजन झाझारिया

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We forget

Let's play with
Matchsticks again,
Come nd play game,
Exactly the same,
Try to make a rhyme,
Of every single talk,
Will fit another lines,
For every single song,
Laugh and cry,
Without reasons,
will stop,
Bleeding knee,
With the help of,
sand and dirty clothes,
Will wonder,
How the wind is blowing.
Will be worried,
In this hot summer,
Why ll roadside dogs,
Need to suffer.
....
Yes, I know,
As we grow up,
We learn new things,
But do you know,
We forget,
How to fly in the sky,
With the wings.
© गुंजन झाझारिया

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गुरुवार, अप्रैल 10

अधीन विचार

वक्त के आधीन/
झुके हुए/
उन गुलामों की तरह/
तुम्हारे शब्द/
हरदम मायूसी लिए/
बारिश में भीगे फूस के छप्पर की तरह भारी/
महानता का लटकता चोगा पहने/
यदा-कदा काया दिख जाती उसमें/
खांसीकर बाहर आये बलगम के जैसे/
तुम्हारे विचार/
शायद अब समय आ गया है/
दावा-दारु दोनों ही करवा लो विक्षिप्त/
यह बिमारी बढ़ने से पहले फैला करती है/
संक्रमण से भरी छाती सी/
तुम्हारी सोच/
विशाणुओं का जड़ से खत्म जरुरी है/
@गुंजन झाझरिया

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गुरुवार, अप्रैल 3

आज लिख

लिख दे तू दर्द सारे,
अंगार स्याह आखर में,
तड़प, जूनून को दे रगड़क,
सफ़ेद पर कालिख रंग,
लहू लिख, आह लिख,
सीने में उठता उबाल,
लिख तू,
दुनियां में बढ़ता बवाल,
चीखें चुन, घाव सूंघ,
कर्कशता, कायरता बेहिसाब लिख।
तबाही का एलान लिख,
क्रोध, अभिमान लिख,
अँधेरे का भय,
टूटती साँस का क्षय,
बढती उम्र का,
छीनता मान लिख।
है तुझमें जो ताकत,
लिख आज तू,
पैदा होते शिशु का शंखनाद,
पागल माँ की प्रसव-पीड़ा,
मांस के उड़ते चीथडों के बीच,
भोजन सूंघता नर,
राख होती कायनात लिख।
बहुत कुछ होगा तेरे पास,
मगर इस बार तू बस,
कांपती हथेलियों की बैसाखी लिख,
जो बाँट देती है तकलीफ,
अंग कार्यशील न होने की।

# बदले में मैं चहकती चुनिया लिखूंगी। :)
© गुंजन झाझारिया

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"मैं"

भीतर सन्नाटा है आजकल,
शांत बयार बह रही है,
कहर आया था,
कोई क्या सोचेगा जैसी लाइलाज बीमारियाँ लेकर,
उथल पुथल मचा दी थी,
मैं 'मैं' ना रही,
मेरी चाहतों पर,
गर्द भरा कपडा रख,
लक्ष्य को भूल,
'फलाने' पर 'इम्प्रैशन' जमाना ही दिनचर्या थी,
आह! रूह कांप उठती है,
उस बिमारी का बहुत दर्द सहा,
छुटकारा नामुमकिन है,
ऐसे कई तर्क सुने,
दिन-रात लड़ाई लड़,
काले अंधड़ से जीत लाई "मैं" को,
कौन कहता है "मैं" शत्रु है,
शत्रु "फलाना" है,
हाँ,
इलाज़ भी है,
निजात पा ली है,
उम्र भर के लिए,
मैं अबके बरस "मैं" लिखुगी,
फलाने साए से निडर हो,
क्यूंकि,
उसे सिर्फ मारा नहीं,
मैंने उसका अंतिम संस्कार भी किया है,
नहीं, हरिद्वार नहीं,
अपने सुकून की शीतल जलधारा में बहा दिया।
"मैं" अब स्वस्थ हूँ,
कलम थाम "मैं" लिखने को।
© गुंजन झाझारिया

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