रविवार, अक्टूबर 31

mera man mujhe bha jata hai.

मेरा मार्ग मैंने  चुना है,
मुझे डर नहीं है हार का ,
और न इच्छा कोई जीत की,


बस चाह ह तो चलने की,
यूँही मुस्कुराते रहने की ,
और खुलकर जीने की.




मैं जाना चाहता हूँ ,
जहा न समाज की कोई बेडी हो,
जो हर समय मुझे मेरा काम करने से रोके,
और मस्तिस्क की चले बस मन मानी.
और इस्सी खिचातानी में ,
राज जाये झुरियां मेरे मालिक के माथे पर.


जाऊं मैं ऐसे किसी कोने में ,
जहा हर चेहरा मुस्कुराता हो,
मेरा हर दोस्त मन खिलखिलाता हो.
जहा किसी के सुख में ,
अपने को दुःख की अनुभूति न हो,
और न ही होना पड़े मस्तिस्क को उत्तेजक.


ऐसी गुहार वो प्रतिदिन लगता है,
और कहता है,
मैं नहीं देख सकता तेरे मुख पर डर का भाव,
कर दे अंत इसका और,
डोलती ,इठलाती जा,
मस्तानी सी हवा में नाच तू अपनी ही धुन पर.
मेरा मन कुछ इसी तरह मुझे भा जाता है.

लेबल:

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ