शनिवार, जनवरी 8

लगन

दूर छितिज़ पर धूल उड़ाती दिखाई दे,
समझ लेना अश्व विजयी होने का पैगाम ला रहा है,

घने काले बादल के चारों और जो दिखाई दे,
गुलाबी रंग.
समझ लेना सूर्य अपना तेज बरसाने जा रहा है.

अंतिम मंजिल तो बस जानते हैं सब,
परन्तु राह पर खड़े हने कि जिद

ने ना हासिल करने दिया इसे


साम, दाम, दंड, भेद
अपनाये थे महापुरुषों ने भी
फिर तू क्यों रुका है,.
बस पलक झपका
और देख 
अपनी मंजिल को.


सूर्य जानता है,
मुझे अपना प्रकाश 
कैसे फलाना है,
कैसे जग को रोशन 
करना ह
और कैसे तम 
को दूर भागना है.




घनी  काली  बदली को 
चिर ना सके मेरी किरने 
तो क्या हुआ?
उसके चारो और से 
मैं अपने आने का पैगाम तो दू.




देख ना सके वो
तरसती अंखिया तो क्या हुआ,
धूल डालकर आँख  में 
थोडा आराम तो दू.


झूझती हैं वो किरने
बादल से छनकर आने को.
कटे तो होंगे हजारो सर युद्ध में 
जीत जाने को 




लगन वही तुझमे देखी मैंने 
जो नदिया में थी
सागर से मिलने कि
या पतंगे में थी जलकर मिटने की.
या फिर
उस विजयी अश्व में थी ,
अंतिम छोर तक पहुच जाने की
जो लगन सूर्य में थी
सुबह सुबह 
पूरब को अपनाने की.







फैला चुका 
सूर्य अब वो गुलाबी रंग,
छितिज़ पर नजर आई धूल 
मुझे.
भटक गई
थी नदिया बाढ़ में तो क्या?
मिलना तो प्रशांत से ही 
था.


 देखी होगी तूने
ना जाने कितनी असफलताए
एक जीत ये 
तेरी,
 सारा
भार उठाने जा रही है
डंका बजेगा अब तेरा भी
नाचेंगे सब तेरी धुन पर,
थिरकेंगे हजारो पैर
तेरे ही संगीत पर
और बजेगा 
डंका तेरा
तेरे ढंका तेरा 
पुरे शहर में.










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2 टिप्पणियाँ:

यहां रविवार, जनवरी 09, 2011, Blogger Er. सत्यम शिवम ने कहा…

Nice poem dear,bhut achaa..bas yuhi likhti raho....

 
यहां बुधवार, जनवरी 12, 2011, Blogger Rohit Singh ने कहा…

हम कोई कवि महाराज तो नहीं है..बस पाठक की नजर से कह रहे हैं अच्छी लिखी है कविता। सरल शब्द में.....

 

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