गिरता पत्ता
सूखे गिरते पत्ते को तुमने बेकार कह दिया,
ना जाना तूने तो कभी, ना कभी ध्यान दिया....
नए पत्तो के स्वागत में उसने यूँ स्वयं को कुर्बान किया...
गिर कर चरणों में जब खाद बना वो,
तब अपनी जड़ो पर ना कोई अहसान किया!
ना जाना तूने तो कभी, ना कभी ध्यान दिया....
ना छोड़ी होती जगह अपनी,
ना कोई नया हरा रंग खिलता!!
ना आता यूँ बहारों का मौसम ,
ना जाना तूने तो कभी, ना कभी ध्यान दिया....
नए पत्तो के स्वागत में उसने यूँ स्वयं को कुर्बान किया...
गिर कर चरणों में जब खाद बना वो,
तब अपनी जड़ो पर ना कोई अहसान किया!
ना जाना तूने तो कभी, ना कभी ध्यान दिया....
ना छोड़ी होती जगह अपनी,
ना कोई नया हरा रंग खिलता!!
ना आता यूँ बहारों का मौसम ,
ना ही तेरा यौवन सजता!!
जब जब किया श्रृंगार किसी ने ,
जब जब अपनी प्रियतमा को सराहा है,
लिया सहारा बस रंगों का!
उस वक़्त भी भूल गया वो,
ना देता गर वो इज़ाज़त,
ना होते सौ रंग यहाँ,
ना हंसते-२ जाता वो,
ना खिलते फूल यहाँ!
जब भी देता है वो मुस्कुरा कर इज़ाज़त,
तभी खिलती हैं कलियाँ यहाँ!
ये पौधे, इंसान नहीं है "गूंज"
जो अपनों के दुखी होने पर
मुस्कुराएँगे !!!
कॉपी-राईट@ गूंज झाझारिया
जब जब किया श्रृंगार किसी ने ,
जब जब अपनी प्रियतमा को सराहा है,
लिया सहारा बस रंगों का!
उस वक़्त भी भूल गया वो,
ना देता गर वो इज़ाज़त,
ना होते सौ रंग यहाँ,
ना हंसते-२ जाता वो,
ना खिलते फूल यहाँ!
जब भी देता है वो मुस्कुरा कर इज़ाज़त,
तभी खिलती हैं कलियाँ यहाँ!
ये पौधे, इंसान नहीं है "गूंज"
जो अपनों के दुखी होने पर
मुस्कुराएँगे !!!
कॉपी-राईट@ गूंज झाझारिया
लेबल: मेरी कविता
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ