मंगलवार, मार्च 27

बैरी बन बैठे हो... .

विश्वास के घरोंदे में दिन रैन तुम्हारे संग, 
फूलों से गजरे बनती,
उन्ही गजरो के फूल बिखेरते तुम्हारे अंग,
प्रेम की छांव में मैं सजती-संवरती,
उसी साज को फीका करते तुम्हारे ढंग!
मेरी पायल बजती ,
तुम राह रोक लेते !
मेरी चुडिया खनके,
तुम बांह मरोड़ देते!!
मेरी बिंदिया की तारीफ़ करते हो,
उसे ही फैलाकर अपने माथे पर टीका बनाते हो...!!
इतना ही नहीं ,
मेरी खाने की थाली से भी तुम
निवाला चुरा लेते हो...
बैरी बन बैठे हो... .

समय कब बीत जाता है?
तुमसे बैंया छुड़ाने में.
तुम्हे राह से हटाने में,
अपनी बिंदिया फिर से सजाने में..
पता ही नहीं लगता!!
तभी तो कहती हूँ तुम नहीं होते हो, तो मन नहीं लगता!!!
बैरी बन बैठे हो... .

@copyright गूंज झाझारिया 

लेबल:

2 टिप्पणियाँ:

यहां मंगलवार, जून 12, 2012, Anonymous बेनामी ने कहा…

Bahut hi Sundar Rachna Hai,,,
Achcha laga Apke Blog par aakar,,

 
यहां गुरुवार, जुलाई 19, 2012, Blogger संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...!!

 

एक टिप्पणी भेजें

सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]

<< मुख्यपृष्ठ