एकला हिमालय
जो हिला नहीं, अटल रहा..
जो खड़ा रहा, बना रहा..
जो डटा रहा, तना रहा..
तूफानो में, जो टिका रहा...
वो हिमालय भी एकला जी रहा ....
जिसको मिटा दिया,
जो हिल रहा, मिल रहा..
जो झुक रहा, सह रहा.
जो गिर रहा, बह रहा..
वो वृक्ष झुंडो में पल रहा....
सर्वस्व छोड एकला चल रहा..
इतनी ऊंचाई पर एकला ही रह रहा..
फिर क्या करना वहाँ जाकर,
जब ऊपर से नहीं कोई दिख रहा...
तरसे नयना, अश्रु बह रहा .
बिछडो को याद कर,
अपनी ही ऊंचाई से
जल रहा...
अंत समय एकला बीत रहा ..
कोई भी समीप ना आ रहा ..
ऊँचा है तू मुझसे..
कहकर हर कोई चिढा रहा..
देखो एकला ही घुट रहा,
एकला हूँ जप रहा..
वो हिमालय ..
एकला एकला मर रहा..
बनना है तो वृक्ष बनो,
हर साँस ये कह रहा...
जो गिरता रहा, उठता रहा...
एक मौसम फल से झुकता..
अगले मौसम फूलो सा खिलता रहा..
अपनों संग बांटी पूँजी सारी,
हर कोई उसको सींचता रहा..
वो देखो वृक्ष झुंडो में पल रहा.....
copyright गुंजन झाझारिया "गुंज"
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