सोमवार, सितंबर 3

खाकी वर्दी वाला बाबु,,


खाकी वर्दी वाला बाबु,,
एक थैला लटकाए...
हर रोज आता था..
संग लाता था रंग ,
लिफ़ाफ़े में बंद कर...
हर एक दरवाजे पर 
भरी दोपहरी में,
इंतज़ार से जली आँखों में..
गुलाबजल सा वो बाबु...
खुशियों को दूर से गाता था ...
साइकिल पर थैला रखकर पुकारता था ..
अम्मा, आज तो लडू खाऊंगा...
बिजली जैसे पुरे मोहले मे,
सुकून बांटता था बाबु...
सबके सपने लिखता था..
सबकी इच्छाएं पढता था...
वो डाकिया बाबु...
जो सहेज कर रखने को..
एक धरोहर दे जाता था..
अब नहीं आता..
खाकी वर्दी वाला बाबु,,
एक थैला लटकाए...
हर रोज आता था..

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4 टिप्पणियाँ:

यहां मंगलवार, सितंबर 04, 2012, Blogger Pallavi saxena ने कहा…

तुमने बुलाया और हम चले आए....खैर बहुत ही अच्छा चित्रण किया है तुमने इस काव्य में डाँक बाबू का सार्थक एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति...शुभकामनायें।

 
यहां मंगलवार, सितंबर 04, 2012, Blogger गुंज झाझारिया ने कहा…

धन्यवाद पल्लवी दी.. :)

 
यहां मंगलवार, सितंबर 04, 2012, Blogger संजय भास्‍कर ने कहा…

अब नहीं आता.. खाकी वर्दी वाला बाबु,, एक थैला लटकाए
बेहतरीन पंक्तियाँ हैं...!!!

 
यहां बुधवार, सितंबर 05, 2012, Blogger गुंज झाझारिया ने कहा…

आभार आपका..

 

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