रोज सुबह आती है वो काम पर..
बगल में ६ महीने की जान टाँगे,
हाथ में दो लोहे की डंडी लटकाए,
सिर पर आंचल ठहराए..
रोज सुबह आती है वो काम पर..
दोनों डंडियों को गाडकर,
एक आंचल को बांधकर,
रोज एक झूला बनाती है,
२साल की नन्ही को रखवाली बिठाती,
रोज सुबह आती है वो काम पर..
एक थैले में लाती बिस्कुट,
एक बोतल में आधा दूध-आधा पानी,
ना रोता है वो भी, ना तंग करता
लटकते झूले में बस ऊँघता रहता..
रोज सुबह आती है वो काम पर..
२ साल की मासूम भी जानती है बचत करना..
२ बिस्कुट खाकर बाकी को बाद के लिए रखना..
मिट्टी में बैठी कुचली फ्राक को साफ़ करती रहती..
२० साल की उसकी माँ,
रोज सुबह आती है काम पर..
सूखी निगाहों, और भरे योवन से देखती
सड़क पर स्कूटी चलाती औरतों को,
बच्ची के लिए क्रीम वाला बिस्कुट लाना,
बेटे के लिए काठ का झूला बनवाना..
इसी सपने को बुनती वो..
रोज सुबह आती है काम पर..
पहनती है जिस दिन नया कपडा कोई,
सुडोल- सुंदर शरीर उसका,
रह रह कर आकर्षित करता है..
क्या दोष दूँ उसके पति को??
२२ साल का युवक उसके संग लगा रहता है..
जब रोज सुबह आती है वो काम पर..
बगल में ६ महीने की जान टाँगे,
हाथ में दो लोहे की डंडी लटकाए,
सिर पर आंचल ठहराए..
रोज सुबह आती है वो काम पर..
गुंजन झाझरिया "गुंज"
लेबल: मेरी कविता
5 टिप्पणियाँ:
धन्यवाद सर...आपको भी बहुत बहुत बधाई....:)
बहुत सुन्दर भाव चित्र है .
dhanywaad virendra ji,,
सटीक शब्द चित्र खींच दिया है ।
abhar sangita ji...
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