स्वयं
स्वयं का साथ स्वयं के हाथ..
एक दोस्ती स्वयं का स्वार्थ...
स्वयं की मंजिल..स्वयं की मात..
ना बढ़ सके एक कदम आगे कोई..
लगा स्वयं की घात..
कर स्वयं को बुलंद..पूछ स्वयं की जात...
स्वयं को उठाना है..तोल स्वयं के जज्बात..
सिहर स्वयं की कमजोरी से.
अकेले निकाल स्वयं की बरात..
ना उँगली कर किसी की ढलान पर,
देख स्वयं के हालात...
जीवन को हँसके जीना है..
भुला दे बीते स्वयं की हर बात..
उठ खड़ा हो हर बार ,
चाहे स्वयं को लगे हज़ारो लात..
बना पीछे कारवां अपने...
मिटते-२ भी बना देना स्वयं को खाद..
स्वयं का साथ स्वयं के हाथ..
एक दोस्ती स्वयं का स्वार्थ...
@गुंजन झाझरिया
लेबल: मेरी कविता
4 टिप्पणियाँ:
आज 18/09/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
बहुत बढ़िया ..... दोस्ती पर सटीक लिखा है ।
dhanywaad....karanvash nahi dekh paayi ..abhi dekha..
अच्छी बातें हौ
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