द्वंद्व (भाग 1)
द्वंद्व चल रहा है,
बुद्ध बनना चाहती हूँ,
कभी भी किसी विषय को पकड़,
सोचती हूँ क्या क्यों कैसे,
विज्ञान की विद्यार्थी बनने का असर,
कदाचित पागल ही कहेंगे लोग,
जब छोटी सी बात पर गुस्सा जाऊं,
किन्तु सच मेरी बैसाखी है,
एक पल भी कोई छिनना चाहे तो,
लडखडाने का भय खाता है।
कभी मैं नारी बनना चाहती हूँ,
मुस्कुराहट टांगे मुंह पर,
सब देखती है,
मतलब नहीं निकालती,
डरती है,
अर्थ निकाला तो बोल फुट पड़ेंगे,
बोल फूटे पुरुष के सामने,
तो डह जाएगी नारीत्व की दीवार,
ऐसे महाभारत में,
मैं कभी मैं ही रहना चाहती हूँ।
To be continued......
© गुंजन झाझारिया
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