गुरुवार, मार्च 13

जुगनूं का पता

जुगनू के जैसे,
अपना एक पता होता।
चमकने-चमकाने का,
छुपने-छुपाने का,
किस्सा कोई,
समाज होता।
हथेलियों में,
सहेजी जाती उड़ानें,
जब कोई,
रात से डरा,
घबराया राहगीर,
भटक गया होता।
साथ पाने के लिए,
हर किसी को,
पानी की,
ठंडाई से भीगना होता।
खामोश,
चाल से चलना होता,
रोकनी होती सांसें,
बहते लहू को,
सुनना होता।
छपछपाहट,
कदमों की,
खड़े करती रौंगटे,
रोमांच का,
अद्भुत अहसास होता।
पूछी जाती,
वो मुलाकातें,
जब दर्शन,
भली किस्मत,
मिलन उससे,
एक अहसान होता।
जुगनूं के जैसे अपना,
एक पता होता।
© गुंजन झाझारिया

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