यथार्थ
मूक बाज़ार,
भीतर सुर ताल,
सुनसान जखीरा,
राही नाच,
तालियाँ चुप,
दीवारों में मल्हार,
रेत स्वप्न,
उडती आंधियों में,
टीला चमकती चांदनी,
शांत बयार,
चीखते नयन,
गुंजन सागर का,
डूबते मोती,
रेत नम,
मैं स्तब्द एक दर्शक,
सुनती,
चुप,
हाथ हथियार,
गिरे,
खुद पांव पर,
बहुत हुआ,
बस कहती रही।
लड़ना किससे,
खुद से,
ना,
बस प्रेम,
अपने मन से,
स्वार्थ,
नहीं यथार्थ,
बस यही यथार्थ।।।
गुंजन झाझारिया
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