दिन उगेंगे-ढलेंगे
बढाता चल कदम यूँही,
रास्ते खुदबखुद मिलेंगे।
बरसों से,
बंद पड़े होंगे जो दरवाजे,
रखेगा जो भरोसा स्वयं पर,
तेरी कर्मठता से जरुर खुलेंगे।।
'गूँज' मुस्कराहट के साथ,
तेरी आवाज़ के सुर,
हिमालय को भी चीर देंगे।
फूलों की सुगंध से भटकना नहीं,
गुलशन भी मुरझा जाते हैं,
होगा जब तू मजबूत,
तभी तेरे नाम के सिक्के चलेंगे।
देना फिर तोहफे तू,
कि तेरे क़दमों की आहट से,
दिन उगेंगे, दिन ढलेंगे,
दिन उगेंगे, दिन ढलेंगे।।।
© गुंजन झाझारिया
लेबल: मेरी कविता
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें
सदस्यता लें टिप्पणियाँ भेजें [Atom]
<< मुख्यपृष्ठ